हल्दी की जैविक खेती इसके भूमिगत कन्दों, घनकंदों व प्रकंदों के लिए की जाती है| वाणिज्यिक भाषा में इन्हीं कन्दों को हल्दी कहते हैं| हल्दी का मुख्य उपयोग मसाले के रूप में किया जाता है| परन्तु यह रंग व औषधि के रूप में भी प्रयोग में ली जाती है| मसाले के रूप में हल्दी खाद्य पदार्थों का स्वाद बढ़ाने के साथ-साथ उनको अपने रंग से आकर्षक भी बनाती है|
दवाईयों के रूप में हल्दी के अनेक उपयोग है, जैसे शरीर के कटे भाग पर हल्दी का चूर्ण लगाना, सर्दी जुकाम में दूध के साथ पिलाना शरीर के जोड़ों के दर्द में तथा पुरानी खाँसी में हल्दी का पाक बनाकर खिलाना आदि| आयुर्वेद में हल्दी का उपयोग कई दवाईयों के निर्माण में होता है| हल्दी की गुणवत्ता का आधार इसमें पाये जाने वाले रंगीन पदार्थ “क्युरक्युमिन” व वाष्पशील तेल की मात्रा है| सूखी हल्दी या चूर्ण में क्युरक्युमिन की मात्रा 2.6 से 6.6 प्रतिशत तक होती है|
यदि किसान बन्धु हल्दी की खेती जैविक तकनीक से करें, तो अच्छी उपज की साथ-साथ अच्छा लाभ भी ले सकते है| क्योंकि जैविक तकनीक में उत्पादन लागत बहुत कम आती है| लेकिन इसके लिए हल्दी की जैविक खेती तकनीक की जानकारी होना आवश्यक है| इस लेख में हल्दी की जैविक उन्नत खेती कैसे करें की जानकारी का उल्लेख किया गया है|
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हल्दी की जैविक खेती के लिए उपयुक्त जलवायु
गर्म व नम जलवायु हल्दी की जैविक खेती के लिए उपयुक्त है| समुद्र तल से 1500 मीटर ऊँचाई तक हल्दी की खेती की जा सकती है| प्रकंदों के अंकुरण के लिए 30 से 35 डिग्री सेल्सियस, शाखाओं के फूटने के लिए 25 से 30 डिग्री सेल्सियस, कद बनने के समय 20 से 25 डिग्री सेल्सियस तथा कदों के विकास के लिए 18 से 20 डिग्री सेल्सियस तापमान उपयुक्त होता है| जिन क्षेत्रों में औसत वार्षिक वर्षा 225 से 250 सेंटीमीटर होती है, उन क्षेत्रों में वर्षाधारित हल्दी की खेती की जा सकती है|
हल्दी की जैविक खेती के लिए भूमि का चयन
हल्दी की जैविक खेती मसालेदार नगदी फसल के अतिरिक्त हर गृह वाटिका में भी सफलतापूर्वक की जा सकती है| इसकी खेती के लिए 4.5 से 7.5 पी एच मान के बीच और एक प्रतिशत से अधिक जैविक कार्बन युक्त जल निकासी व्यवस्था वाली रेतीली अथवा चिकनी दोमट मिटटी सर्वाधिक उपयुक्त होती है|
हल्दी की जैविक खेती के लिए खेत की तैयारी
हल्दी की जैविक खेती हेतु यदि खेत में जैविक कार्बन की मात्रा एक प्रतिशत से कम है तो 30 से 40 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की खाद का प्रयोग करें और खाद को भली भांति मिलाने के लिए खेत को 2 से 3 बार अच्छी तरह जुताई करें| मानसून के आगमन से पूर्व भूमि तैयार की जाती है| चार बार गहरी जुताई करने के बाद भूमि को अच्छी तरह बुआई के लिए तैयार कर लिया जाता है|
अमलीय भूमि के लिए 500 किलो ग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जलयोजित चूने का प्रयोग करना होता है और मानसून पूर्व बौछारों के आगमन के तत्काल बाद अच्छी तरह जुताई की जाती है| क्यारियों के बीच 50 सेंटीमीटर का अंतराल देते हुए 1.0 मीटर की चौड़ाई, 15 सेंटीमीटर की ऊंचाई और सुविधाजनक लंबाई वाली क्यारियां बनाई जाती हैं|
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हल्दी की जैविक खेती के लिए उन्नत किस्में
हल्दी की जैविक खेती हेतु किसान बन्धुओं को अपने क्षेत्र की उन्नत और अधिक उपज देने वाली प्रचलित के साथ-साथ विकार रोधी प्रजाति का चयन करना चाहिए| यदि संभव हो सके तो जैविक प्रमाणित बीज का प्रयोग करना चाहिए| कुछ प्रचलित किस्में इस प्रकार है, जैसे- सोरमा, सुगंधम, सगुना, रोमा, पन्त पीतम्भ, बी एस आर- 1, पालम पिताम्बर और पालम लालिमा आदि प्रमुख है| किस्मों की पूरी जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- हल्दी की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
हल्दी की जैविक खेती के लिए बुआई का समय
उत्तर भारत के मैदानी क्षेत्रों में हल्दी की जैविक फसल की बुवाई अप्रेल से जुलाई तक की जा सकती है| लेकिन सिंचाई की व्यवस्था होने पर अप्रेल से मई उपयुक्त समय है| निचले पर्वतीय क्षेत्रों में मई से जून और मध्य पर्वतीय क्षेत्रों में अप्रैल से मई उपयुक्त समय रहता है|
हल्दी की जैविक खेती हेतु बीज दर और अंतराल
एक हैक्टेयर भूमि में रोपण के लिए 20 से 25 क्विंटल प्रकंदों की आवश्यकता होती है| प्रत्येक कंद पर 2 से 3 सुविकसित आँख अवश्य होनी चाहिए| मेढ़ों और नालियों के लिए उपयुक्त अंतराल 30 से 40 सेंटीमीटर और पंक्ति में पौधे से पौधे के बिच 20 सेंटीमीटर का अंतराल ठीक रहता हैं तथा क्यारियों या समतल जमीन के लिए पंक्ति से पंक्ति का अंतराल 30 सेंटीमीटर और पंक्ति में पौधे से पौधे का 20 से 25 सेंटीमीटर रखते है|
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हल्दी की जैविक खेती के लिए बीज उपचार
हल्दी की जैविक खेती से अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए और बीज और मिटटी जनित रोगों से बचाव हेतु ट्राईकोडर्मा या ट्राईकोडर्मा विरडी 5 से 8 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज दर से उपचारित अवश्य करें| ध्यान रहे लेप पुरे कंद पर लगना चाहिए| लेप चिपकाने के लिए गुड का प्रयोग उचित मात्रा में किया जा सकता है|
हल्दी की जैविक खेती के लिए खाद प्रबंधन
खेत तैयार करते समय या क्यारियों के ऊपर आधारभूत परत के तौर पर या रोपण के समय छितराकर या जुताई द्वारा, गड्ढों में बिछाकर 45 दिन के अंतराल पर 5 से 10 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से केंचुए की खाद और 12 से 15 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से हर पत्ते युक्त मल्चिंग के साथ-साथ 30 से 40 टन प्रति हेक्टेयर की दर से गोबर की खाद अथवा कम्पोस्ट का प्रयोग किया जाता है| मिटटी की जांच के आधार पर फास्फोरस और पोटेशियम अनुपूरक की अपेक्षित मात्रा प्राप्त करने के लिए चूने या डोलोमाइट रॉक फास्फेट और लकड़ी की राख का प्रयोग किया जाता है|
रोपण के समय 5 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जिंक का प्रयोग भी किया जा सकता है और 2 टन प्रति हेक्टेयर के हिसाब से जैविक खाद जैसे खली का प्रयोग भी किया जा सकता है| ऐसे मामलों में गोबर की खाद जैविक उर्वरक (एजोस्पिरिलियम) की मात्रा में कमी की जा सकती है और एन पी के की आधी संस्तुत मात्रा की सिफारिश भी की जाती है| इसके अतिरिक्त खली जैसे नीम खली (2 टन प्रति हेक्टेयर), कम्पोस्टेड विलय जीवाणु के अनुपूरक से भी उर्वरकता और उत्पादकता में बढ़ौतरी होगी|
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हल्दी की जैविक फसल में सिंचाई प्रबंधन
हल्दी की जैविक फसल में थोड़े अंतराल पर बार-बार सिंचाई की आवश्यकता होती है, जो भूमि और जलवायु की स्थिति पर निर्भर करती है| सामान्यतः चिकनी मृदा में 15 से 21 बार सिंचाई की जाती है और रेतीली दोमट मृदा में 35 से 40 बार सिंचाई की जाती है| अपरदन और जलप्रवाह को न्यूनतम करने के लिए ढाल के साथ-साथ क्यारियों के बीच अंतराल में संरक्षण गड्ढे बनाकर जल संरक्षण के उपाय भी किए जा सकते हैं| जल निकास के लिए गहरे गड्ढे बनाकर निचली सतह वाले खेतों में पानी के ठहरने से बचा जा सकता है|
हल्दी की जैविक फसल में खरपतवार प्रबंधन
हल्दी की जैविक फसल में रोपण के 60, 90 और 120 दिन बाद निराई की जाती है| जो खरपतवार की तीव्रता पर निर्भर करती है| हल्दी को फलों के बागीचों में अंतर फसल के तौर पर भी उगाया जा सकता है| इसे मिर्च, अरबी, अदरक, भिंडी, रौंगी जैसे खाद्यान्नो आदि के साथ मिश्रित फसल के तौर पर भी उगाया जा सकता है|
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हल्दी की जैविक फसल में कीट प्रबंधन
तना छेदक- यह कीट तने में छेद करता है और आंतरिक ऊतकों को खा जाता है| जिसके जरिये द्रव्य बाहर निकलता है और मध्य से मुरझाया पौधा कीट प्रकोप का लक्षण है|
प्रबंधन-
1. जुलाई से अक्तूबर के दौरान 21 दिन के अंतराल पर नीमगोल्ड 0.5 प्रतिशत या नीम तेल 0.5 प्रतिशत का छिडकाव तना छेदक कीट के खिलाफ प्रभावी है| छिड़काव की शुरूआत तब करनी चाहिए जब सबसे आंतरिक पत्ते पर कीट के प्रकोप के लक्षण दिखाई देने लगे|
2. यदि तना छेदक कीट की घटना दिखाई देती है, शूट्स को काट कर खोले, लार्वे को पकड़कर बाहर निकालें व नष्ट कर दें|
प्रकन्द कीट- प्रकन्द कीट (एस्पिडिएला हार्टी) खेत में प्रकंदों (फसल की बाद की अवस्था में) और भण्डारण में क्षति पहुंचाता है| ये शिराओं के द्रव्य को खाते हैं और जब प्रकन्दों पर भयंकर प्रकोप होता है, वे रसरहित एवं सूखे हो जाते हैं जिससे इनका अंकुरण प्रभावित होता है|
प्रबंधन- खेत की नियमित निगरानी और भौतिक स्वच्छता के उपायों को अपनाएं|
हल्दी के कीट- हल्दी के कीट (पेन्केटोर्लिप्स इंडिकस) पत्तों को पीड़ित करता है| जिससे वे मुड़ जाते हैं, पीले पड़ते हैं और धीरे-धीरे सूख जाते हैं| मानसून के बाद की अवधि के दौरान कीट का प्रकोप अधिक आम बात है, विशेषकर देश के शुष्क क्षेत्रों में|
प्रबंधन- यदि आवश्यक हो, एक पखवाड़े के अंतराल पर 0.5 प्रतिशत नीम तेल का छिड़काव करें|
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हल्दी की जैविक फसल में रोग प्रबंधन
पत्तों पर धब्बे- यह रोग पत्ते के किसी भी तरफ छोटे, अंडाकार, आयताकार अनियमित भूरे धब्बों के रूप में दिखाई देता है, जो शीघ्र ही भद्दे पीले अथवा गहरे भूरे रंग के बन जाते हैं| कुछ मामलों में, पौधे झुलसाहट का आभास देते हैं और प्रकन्दों की उत्पादकता में कमी आ जाती है|
पत्तों पर दाग- यह रोग विभिन्न आकार के, अनियमित आकृति के और केन्द्र में सफेद अथवा हरे रंग के भूरे धब्बों के रूप में प्रकट होते हैं| बाद में, ये धब्बे आपस में मिल जाते हैं और पूरे पत्ते को ढकते हुए एक अनियमित धब्बा बना लेते हैं जो अंतत: सूख जाता है|
कंद सड़न रोग- इस रोग से प्रभावित कंद सड़ जाते हैं और पौधों की पत्तियां भूरी हो जाती हैं|
प्रबंधन-
1. उपरोक्त रोगों को 1 प्रतिशत बोरोडिक्स मिश्रण का छिड़काव कर नियंत्रित किया जा सकता है|
2. तना छेदक के कारण तने का कॉलर क्षेत्र नरम और जल से तर बन जाता है जिसके परिमाणत: पौधा गिर जाता है और प्रकंद का क्षय हो जाता है|
3. रोपण करते समय ट्राइकोडर्मा के प्रयोग से प्रकंद के सड़ने की घटना को नियंत्रित किया जा सकता है|
4. हल्दी की जैविक खेतु हेतु बुवाई के लिए केवल रोगमुक्त कंदों का प्रयोग करें|
5. हल्दी की जैविक फसल में समय-समय पर गोमूत्र का छिडकाव करते रहें|
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हल्दी की जैविक फसल की खुदाई
फसल रोपण के 7 से 9 माह बाद नवम्बर से दिसम्बर के दौरान कटाई के लिए तैयार हो जाती है| अल्पकालीन किस्में 7 से 8 माह, मध्यम कालीन किस्में 8 से 9 माह और दीर्घकालीन किस्में 9 माह के बाद परिपक्व होती हैं| भूमि की जुताई कल्टीवेटर की जाती है और प्रकन्दों को हाथ से एकत्र किया जाता है अथवा ढेर को खुरपी से सावधानीपूर्वक उठाया जाता है| खुदाई किए प्रकन्दों से मिट्टी और उनसे चिपके अन्य तत्वों को साफ किया जाता है|
हल्दी की जैविक फसल को सुखाना और भण्डारण
इसे बांस की बनी चटाई पर अथवा सूखी सतह पर 5 से 7 सेंटीमीटर मोटी परतों पर फैलाकर धूप में सुखाया जाता है| रात्रि के समय, प्रकंदों को एकत्र किया जाना चाहिए या ऐसी किसी चीज से ढक देना चाहिए जिससे हवा मिलती रहे, जिसे पूरी तरह सूखने में 10 से 15 दिन का समय लगता है| अधिकतम 60 डिग्री सेल्सियस तापमान का प्रयोग कर आर-पार गर्म वायु के प्रयोग से कृत्रिम रूप से सुखाने पर भी संतोषजनक उत्पाद मिलता है|
सामान्यतः बीज प्रयोजन के लिए प्रकंदों को हवादार कमरों में ढेरों में भंडारित किया जाता है और हल्दी के पत्ते से ढक दिया जाता है| बीज प्रकंदों को स्टिकनोस नक्सिवोमिका (कांजीराम) के पत्तों के साथ-साथ बुरादे, रेत के साथ गड्ढों में भी भण्डारित किया जा सकता है|
हल्दी की जैविक खेती से पैदावार
हल्दी की उपरोक्त उन्नत जैविक तकनीक से खेती करने पर ताजा हल्दी की औसत उपज 25 से 50 टन प्रति हैक्टेयर सिंचित क्षेत्रों में और 15 से 30 टन प्रति हेक्टेयर उपज असिंचित क्षेत्रों में प्राप्त की जा सकती है| हल्दी सूखने पर उसकी उपज ताजा की 15 से 25 प्रतिशत के बीच होती है|
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