
केले की खेती दुनिया भर की एक महत्वपूर्ण फसल है| भारत में केले की बागवानी लगभग 4.9 लाख हेक्टेयर में की जाती है| जिससे 180 लाख टन उत्पादन प्राप्त होता है| भारत में महाराष्ट्र राज्य सबसे अधिक केले का उत्पादन करता है| इसके स्वाद, पोषक तत्व और चिकित्सक गुणों के कारण यह लगभग पूरे वर्ष उपलब्ध रहता है| यह सभी वर्गों के लोगों का पसंदीदा फल है| यह कार्बोहाइड्रेट और विटामिन, विशेष कर विटामिन बी का उच्च स्त्रोत है| केला दिल की बीमारियों के खतरे को कम करने में सहायक है|
इसके अलावा गठिया, उच्च रक्तचाप, अल्सर, गैस्ट्रोएन्टराइटिस और किडनी के विकारों से संबंधित रोगियों के लिए इसकी सिफारिश की जाती है| केले से विभिन्न तरह के उत्पाद जैसे चिप्स, केला प्यूरी, जैम, जैली, जूस आदि बनाये जाते हैं| भारत केला उत्पादन में पहले स्थान पर और फलों के क्षेत्र में तीसरे नम्बर पर है| यदि उत्पादक बन्धु केले की बागवानी वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो इसकी फसल से अधिकतम उपज प्राप्त की जा सकती है| इस लेख में बागान भाइयों के लिए केले की उन्नत खेती कैसे करें की जानकारी का विस्तृत उल्लेख किया गया है|
उपयुक्त जलवायु
केले के उत्पादन के लिये उष्ण तथा आर्द्र जलवायु उपयुक्त होती है| जहां पर तापक्रम 20 से 35 डिग्री सेन्टीग्रेड के मध्य रहता है| वहाँ पर केले की खेती अच्छी तरह से की जा सकती है| वार्षिक वर्षा 150 से 200 सेंटीमीटर समान रूप से वितरित होनी चाहिए| शीत एवं शुष्क जलवायु में भी इसका उत्पादन होता है| परंतु पाले और गर्म हवाओं से केले की फसल को काफी क्षति होती है|
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उपयुक्त भूमि
केले की बागवानी के लिए बलुई से मटियार दोमट भूमि उपयुक्त होती है| जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 और उचित जल निकास का होना आवश्यक हैं| केले की खेती अधिक अम्लीय एवं क्षारीय भूमि में नही की जा सकती है| भूमि का जलस्तर कम से कम 7 से 8 फीट नीचे होना चाहिए|
खेत की तैयारी
केले की बागवानी के लिए तलवारनुमा पत्तियों का रोपण, गड्डे अथवा नालियों में किया जाता है| गढ़े तैयार करने के लिए सर्वप्रथम मई के महीने में खेत की जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से तथा बाद में 1 से 2 जुताइयां कल्टीवेटर या रोटावेटर से करनी चाहिए, इसके बाद पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा तथा समतल बना लेना चाहिए| इसके पश्चात अंतरवर्ती फसलों के लिए तैयार खेत में पौधों की रोपाई के लिए 2 से 3 मीटर की दूरी पर 50 सेंटीमीटर चौड़े, 50 सेंटीमीटर लम्बे तथा 50 सेंटीमीटर गहरे गढ़े तैयार करते है|
इन गड्डो को तेज धूप में लगभग 15 दिन खुला छोड़ देना चाहिए, जिससे उसकी मिट्टी में उपस्थित बैक्टीरिया व कीड़े आदि तेज गर्मी से समाप्त हो जाये| इसके बाद तैयार गड्ड़ो में 20 से 25 किलोग्राम सड़ी गोबर की खाद, 3 मिलीलीटर क्लोरोपाइरीफॉस को 5 लीटर पानी तथा आवश्यकतानुसार ऊपर की मिट्टी के साथ मिलाकर गड्डो को भर देते है| गड्डे भरते समय मिट्टी को अच्छी तरह दबा देना चाहिए तथा हल्की सिचाई कर देनी चाहिए| यदि संभव हो सके तो केला रोपण से पहले ढेंचा या लोबिया की हरी खाद की फसल उगायें|
उन्नत किस्में
हमारे देश में केला विभिन्न परिस्थितियों तथा उत्पादन प्रणालियों के तहत उगाया जाता है| इसलिए किस्मों का चुनाव विभिन्न जरूरतों और परिस्थितियों के हिसाब से उपलब्ध कई किस्मों में से किया जाता है| लेकिन, लगभग 20 किस्में जैसे ड्वार्फ कैवेंडशि, रोबस्टा, मोन्थन पूवन, नेन्टन, लाल केला, नाइअली, सफेद वेलची, बसराई, अर्धापूरी, रस्थाली, कर्पुरवल्ली, करथली और ग्रैन्डनाइन आदि अधिक प्रचलित हैं| केला उत्पादकों को चाहिए की वे अपने क्षेत्र की प्रचलित, आकर्षक फल, विकार रोधी और अधिकतम उपज देने वाली किस्म का चुनाव करना चाहिए| केले की किस्मों की विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- यह भी पढ़ें- केले की उन्नत किस्में, जानिए उनकी विशेषताएं और पैदावार
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प्रवर्धन
तलवारनुमा पत्तियों के लगभग 500 से 1000 ग्राम वजन के सॉर्ड सकर्स, सामान्यतः प्रवर्धन (प्रसार) सामग्री के रूप में उपयोग किये जाते हैं| सामान्यतः सकर्स कुछ रोगजनकों और नीमाटोड्स से संक्रमित हो सकते हैं| इसी प्रकार सकर्स की आयु तथा आकार में भिन्नता होने पर फसल एक समान नहीं होती है| जिससे फसल कटाई की प्रक्रिया लंबी हो जाती है और प्रबंध करना मुश्किल हो जाता है| इसलिए, इन विट्रो क्लोनल प्रसार (टिशू कल्चर) रोपाई के लिये पौधों की सिफारिश की जाती हैं| वे स्वस्थ, रोग मुक्त, एक समान और प्रामाणिक होते हैं| रोपने के लिये केवल उचित तौर पर कठोर, किसी अन्य से उत्पन्न, पौधों की सिफारिश की जाती है|
टिशू कल्चर रोपाई के फायदे
1. अच्छे प्रबंधन के साथ केवल मातृ पौधे|
2. कीट एवं रोग मुक्त विकसित छोटे पौधे|
3. एक समान बढ़त तथा अधिक उत्पादन|
4. कम समय में फसल की परिपक्वता जिससे भारत जैसे कम भूमि स्वामित्व वाले देश में जमीन का अधिकतम उपयोग संभव है|
5. वर्ष भर रोपाई संभव है, क्योंकि विकसित छोटे पौधे वर्ष भर उपलब्ध कराये जाते हैं|
6. कम अवधि में एक के बाद एक, दो अंकुरण संभव हैं, जो फसल की लागत कम कर देते हैं|
7. बगैर अंतर के कटाई संभव|
8. 95 से 98 प्रतिशत पौधे में गुच्छे लगते हैं|
रोपाई का समय
15 जून से 15 जुलाई केला रोपण के लिए सबसे उपयुक्त समय है| हालाकि टिशू कल्चर केले की रोपाई वर्ष भर की जा सकती है| सिवाय उस समय के जब तापमान अत्यन्त कम या अत्यन्त ज्यादा हो|
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रोपण का तरीका
व्यावसायिक केला उत्पादक फसल की रोपाई 1.5 X 1.5 मीटर पर उच्च घनत्व के साथ करते हैं, लेकिन पौधे का विकास तथा उपज सूर्य की रोशनी के लिए प्रतिस्पर्धा की वजह से कमजोर हो जाते हैं| इस समस्या के समाधान के लिए एक कृषि अनुसंधान संस्थान के शोध के अनुसार 1.82 X 1.52 मीटर के अंतराल की सिफारिश की जा सकती है|
पंक्तियों की दिशा उत्तर-दक्षिण रखते हुए तथा पंक्तियों के बीच 1.82 मीटर का बड़ा अन्तर रखते हुए 3630 पौधे प्रति हेक्टेयर समायोजित किये जा सकते है| उत्तर भारत में जहां आर्द्रता बहुत अधिक है और तापमान 5 से 7 डिग्री से तक गिर जाता है, रोपाई का अंतराल 2.1 X 1.5 मीटर से कम नहीं होना चाहिए|
सिंचाई प्रबंधन
केला पानी से प्यार करने वाला एक पौधा है| अधिकतम् उत्पादकता के लिए पानी की एक बड़ी मात्रा की आवश्यकता मांगता है| लेकिन केले की जड़ें पानी खीचने के मामले में कमजोर होती हैं| अतः भारतीय परिस्थितियों में केले के उत्पादन में दक्ष सिंचाई प्रणाली, जैसे ड्रिप सिंचाई की मदद ली जानी चाहिए| केले के पूर्णवर्धित झाड़ या पौधे को प्रति दिन 12 से 15 लीटर पानी की आवश्यकता होती है| इस प्रकार केले में पानी की आवश्यकता प्रति पौधा प्रति वर्ष लगभग 1800 से 2000 लीटर तक होती है|
ड्रिप सिंचाई एवं मल्चींग तकनीक से जल के उपयोग की दक्षता में बेहतरी की रिपोर्ट है| ड्रिप के जरिये जल की 56 प्रतिशत बचत और उत्पादन में 23 से 32 प्रतिशत वृद्धि होती है| पौधों की सिंचाई रोपने के तुरन्त बाद करें| पर्याप्त पानी दें एवं खेत की क्षमता बनाये रखें| आवश्यकता से अधिक सिंचाई से मिट्टी के छिद्रों से हवा निकल जाएगी| फलस्वरूप, जड़ के हिस्सों में अवरोध उत्पन्न होने से पौधे की स्थापना और विकास प्रभावित होंगें| इसलिए केले में उचित सिंचाई प्रबंधन के लिये ड्रिप पद्धति अनिवार्य है|
पलावर (मल्चिंग)
केले के थालो पर पुवाल गन्ने की पत्ती अथवा पालीथीन आदि के बिछा देने से नमी सुरक्षित रहती है और सिचाई की मात्रा भी आधी रह जाती है, साथ ही फलोत्पादन एवं गुणवत्ता में वृद्धि होती है| इसके अतिरिक्त इससे संदियों में भूमि का तापमान बढ़ जाता है तथा गर्मियों में तापमान कम हो जाता है| इसके अतिरिक्त पानी का बहाव कम होना, मृदा अपरदन कम होना, अतिरिक्त कार्बनिक पदार्थो का भूमि में मिलना तथा भूमि की उर्वराशक्ति में सुधार आदि में लाभ होते है|
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खाद एवं उर्वरक
केले को काफी मात्रा में पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है| जो मिट्टी द्वारा कुछ ही मात्रा में प्रदान किये जाते हैं| अखिल भारतीय स्तर पर पोषक तत्वों की आवश्यकता 20 किलोग्राम गोबर की खाद, 200 ग्राम नाइट्रोजन, 60 से 70 ग्राम फास्फोरस तथा 300 ग्राम पोटैशियम प्रति पौधा आंकी गयी है| केले की फसल को 7 से 8 किलोग्राम नाइट्रोजन, 0.7 से 1.5 किलोग्राम फास्फोरस और 17 से 20 किलोग्राम पोटाशियम प्रति मीट्रिक टन उत्पादन के लीए आवश्यकता होती है| पोषक तत्व प्रदान करने पर केला अच्छे नतीजे देता है| परम्परागत रूप से किसान अधिक यूरिया तथा कम फॉस्फोरस और पोटाश का इस्तेमाल करते है| जबकि उर्वरकों का प्रयोग मृदा परिक्षण के आधार पर संतुलित मात्रा में किया जाना चाहिए|
अंतरवर्ती फसलें
केले की जड़ प्रणाली सतही है, जो बीच की फसल की खेती तथा उपयोग से आसानी से क्षतिग्रस्त हो जाती है, जो वांछनीय नहीं है| लेकिन कम अवधि की फसलें (45 से 60 दिन), जैसे लोबिया मूंग, मूली, गोभी इत्यादि फसलों को लिया जा सकता है| ककड़ी परिवार की फसलों से बचा जाना चाहिए, क्योंकि इनमें वायरस होते हैं|
खरपतवार नियंत्रण
पौधे को खरपतवार रहित रखने के लिये, रोपने से पहले 2 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से ग्लााइफासेट (राउंड अप) का छिड़काव किया जाता है| एक या दो बार हाथों से खरपतवार निकालना जरूरी होता है| ताकि खेत भुरभुरा बना रहे|
पत्तियों को काटना
पत्तियों की रगड़ फल को नुकसान पहुंचाती है, इसलिए ऐसी पत्तियों को नियमित रूप से जाँच कर काट दिया जाना चाहिए| पुराने तथा संक्रमित पत्तों को भी आवश्यकतानुसार काट दिया जाना चाहिए| हरी पत्तियों को नहीं हटाना चाहिए|
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थैली बंदी
गहर को ठंडक, धूप, चिड़िया आदि से बचाने के लिए इस की थैलाबंदी आवश्यक होती है| थैलाबंदी से उपज के साथ-साथ फलों की गुणवत्ता में भी काफी सुधार होता है| कई जगहो पर थैलाबंदी प्लास्टिक से करते है, परंतु इससे फलों को तेज धूप से झुलसने का खतरा होता है| इसके अतिरिक्त मध्यम भार के जूट के थैले तथा बोरे की पट्टियों को भी थैलाबंदी के लिए प्रयोग किया जाता है| थैलाबंदी करते समय एक भाग पुष्पावलीवृंत से ऊपर तथा नीचे का भाग मादा गुच्छे के नीचे बांधना चाहिए| नीचे का भाग थोड़ा ढीला रखना चाहिए जिससे पुष्पों का सूखा भाग नीचे गिरता रहे|
खेत की गुड़ाई
मिट्टी को समय-समय पर गुड़ाई कर ढीला रखें, खेत की गुड़ाई का कार्य रोपाई के 3 से 4 महीनों बाद करें| जैसे पौधे की सतह के आसपास 10 से 12 इंच तक मिट्टी के स्तर को ऊपर उठाना, ऊंची क्यारी तैयार करना बेहतर होगा तथा ड्रिप लाइन क्यारी पर पौधे से 2 से 3 इंच दूर रखें| ऐसा करने से पौधों को वायु से नुकसान एवं उत्पादन नुकसान से कुछ हद तक रक्षा करने में मदद मिलती है|
सहारा देना
गुच्छे के भारी वजन के कारण पौधे का संतुलन गड़बड़ा जाता है और फलदार पौधे जमीन पर टिक सकते हैं| इससे उनका उत्पादन तथा गुणवत्ता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है| इस कारण इन्हें दो बांस के त्रिकोण सम्बल द्वारा झुकाव की ओर से तने पर सहारा दिया जाना चाहिए| यह भी गुच्छे के समान रूप से विकास में मदद करता है|
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रोग एवं रोकथाम
केले की फसल में कई रोग कवक एवं विषाणु के द्वारा लगते है, जैसे पर्ण चित्ती या लीफ स्पॉट,गुच्छा शीर्ष या बन्ची टाप,एन्थ्रक्नोज और तनागलन हर्टराट आदि लगते है| रोकथाम के लिए ताम्र युक्त रसायन जैसे कापर आक्सीक्लोराइट 0.3 प्रतिशत का छिडकाव करना चाहिए या मोनोक्रोटोफास 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी के साथ छिडकाव करना चाहिए|
कीट एवं रोकथाम
केले में कई कीट लगते है, जैसे केले का पत्ती बीटिल, तना बीटिल आदि लगते है नियंत्रण के लिए मिथाइल ओ-डीमेटान 25 ई सी 1.25 मिलीलीटर प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करना चाहिए या कारबोफ्युरान अथवा फोरेट या थिमेट 10 जी दानेदार कीटनाशी प्रति पौधा 25 ग्राम प्रयोग करना चाहिए| केले में कीट एवं रोग नियंत्रण की अधिक जानकारी के लिए यहाँ पढ़ें- यह भी पढ़ें- केला फसल के प्रमुख कीट एवं रोग और उनका नियंत्रण कैसे करें
फल कटाई
रोपी गई फसल 11 से 12 महीनों के भीतर कटाई के लिए तैयार हो जाती है| पहली रेटून फसल मुख्य फसल की कटाई के 8 से 10 महीनों में तथा दूसरी रेटून, द्वितीय फसल के 8 से 9 महीनों बाद तैयार हो जाती है| इसलिये 28 से 30 महीनों की अवधि में तीन फसलों की कटाई संभव है| यानी, एक मुख्य फसल एवं दो रेटून फसलें|
पैदावार
ड्रिप सिंचाई के साथ फर्टिगेशन के तहत, यदि उपरोक्त वैज्ञानिक तकनीक से केले की बागवानी की जाये तो 100 टन प्रति हेक्टेयर पैदावार टिशू कल्चर की सहायता से ली जा सकती है| यदि फसल का अच्छा प्रबंधन किया जाए तो रेटून फसल में भी समान पैदावार ली जा सकती है|
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