
बीजीय मसाला फसलों में उत्पादन एवं क्षेत्रफल के हिसाब से जीरे का प्रथम स्थान है| अतः जीरा एक महत्वपूर्ण बीजीय मसाला है, जो कि उत्तरी मिस्र, तुर्की और पूर्वी भू-मध्य क्षेत्र में उत्पन्न हुआ माना जाता है| जीरे की खेती मुख्य रुप से भारत, तुर्की, ईरान, पाकिस्तान, सीरिया तथा इटली जैसे देशों में की जाती है| हमारे देश में रबी की फसल के रुप में जीरे की खेती मुख्य रुप से राजस्थान, गुजरात, उत्तरप्रदेश एवं मध्यप्रदेश में की जाती है| यह काली मिर्च के बाद धनिया में सबसे लोकप्रिय मसाला है, जिसका उपयोग प्राचीनकाल से किया जा रहा है|
इसका उल्लेख धार्मिक ग्रन्थ बाइबिल के दोनों टेस्टामेन्ट में किया गया है| इसे साबुत या पीसकर सब्जियों, अचार, सूप, मीट, पनीर, ब्रेड, केक व बिस्कुट आदि में सुगंध व मसालों के रुप में काम में लिया जाता है| गर्मी से निजात पाने के लिए जीरे से बना जलजीरा नामक शीतल पेय काम में लिया जाता है| जीरा बीजों से निश्कासित तेल डिब्बाबन्द भोज्य पदार्थों में प्रयोग होता है| जीरे के बीजों से किस्म व जगह के आधार पर 2.5 से 4.5 प्रतिशत वाष्पशील तेल प्राप्त होता है|
जीरे से प्राप्त ओलियोरेजिन की अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में काफी अच्छी माँग हैं| इसकी खेती से कम लागत व कम समय में अधिक आर्थिक लाभ कमाया जा सकता है| किसानों को जीरे की वैज्ञानिक तकनीक से खेती करनी चाहिए| ताकि इसकी फसल से अधिकतम उत्पादन प्राप्त किया जा सके| इस लेख में जीरे की उन्नत खेती कैसे करें की विस्तृत जानकारी का वर्णन किया गया है|
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उपयुक्त जलवायु
शुष्क एवं साधारण ठण्डी जलवायु जीरे की खेती के लिए उपयुक्त पायी गयी है| बीज पकने की अवस्था पर अपेक्षाकृत गर्म एवं शुष्क मौसम जीरे की अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक होता है| वातावरण का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक व 10 डिग्री सेल्सियस से कम होने पर जीरे के अंकुरण पर विपरीत प्रभाव पड़ता है| अधिक नमी के कारण फसल पर छाछ्या तथा झुलसा रोगों का प्रकोप होने के कारण अधिक वायुमण्डलीय नमी वाले क्षेत्र इसकी खेती के लिए अनुपयुक्त पाये गये है| अधिक पालाग्रस्त क्षेत्रों में जीरे की फसल अच्छी नहीं होती है|
भूमि का चयन
हालाँकि जीरे की खेती सभी प्रकार की मृदाओं में की जा सकती है, लेकिन रेतीली चिकनी बलुई या दोमट मिट्टी जिसमे कार्बनिक पदार्थो की अधिकता व उचित जल निकास हो, इसकी खेती के लिए सबसे उपयुक्त होती है|
खेत की तैयारी
भूमि को भलीभाँति तैयार करके जीरे की अच्छी पैदावार ली जा सकती है| मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई तथा देशी हल या हैरो से दो या तीन उथली जुताई करके पाटा लगाकर खेत को समतल कर लेना चाहिए| खेत के समतल होने पर उपयुक्त सिंचाई चैनल युक्त सुविधाजनक आकार की क्यारियाँ बनानी चाहिए जिससे बुवाई एवं सिंचाई आसानी से हो जाए|
बुवाई के 2 से 3 सप्ताह पहले गोबर खाद को भूमि में मिलाना लाभदायक रहता है| यदि खेत में कीटों की समस्या है, तो फसल की बुवाई के पहले इनके रोकथाम हेतु अन्तिम जुताई के समय क्विनालफॉस 1.5 प्रतिशत, 20 से 25 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर की दर से खेत में डालकर अच्छी तरह से मिला लेना लाभदायक रहता है|
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मृदा सौरीकरण- जीरे में उखठा (विल्ट) रोग का प्रकोप अधिक होता है, यह रोग मिट्टी जनित एवं बीज जनित कवक द्वारा होता है| मिट्टी जनित रागों के नियन्त्रण के लिए मृदा सौरीकरण एक कारगार तकनीकी है| इसके अन्तर्गत 20 से 25 माइक्रोन पतली प्लास्टिक फिल्म को पानी से सतृत भूमि पर 3 से 4 सप्ताह तक गर्मी के मौसम में ढककर रखते है| जिससे प्लास्टिक परत के अन्दर बाहर के वातावरण की अपेक्षा 10 से 15 डिग्री तक तापमान ज्यादा हो जाता है| जिससे मिट्टी जनित बीमारियों का कारगार नियन्त्रण होता है|
उन्नत किस्में
आर एस-1- राजस्थान के लिए उपयुक्त, बड़े एवं रोयेदार बीज वाली यह किस्म 80 से 90 दिनों में परिपक्व हो जाती है| इसकी पैदावार 6 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है| यह किस्म उखठा रोग के प्रति प्रतिरोधी पायी गयी है|
एम सी- 43- गुजरात राज्य के लिए उपयुक्त इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदान (गुजरात) द्वारा किया गया है| यह किस्म 90 से 105 दिनों में परिपक्व हो जाती है| इसकी उपज 7 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक है|
आर जेड-19- यह किस्म राजस्थान के सभी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है| इसका तना सीधा होता है व इस पर गुलाबी रंग के फूल व रोमिल दाने आते हैं| यह किस्म 120 से 140 दिन में पक कर तैयार होती है तथा इस किस्म की पैदावार 8 से 10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर दर्ज की गयी है|
आर जेड- 209- उखठा रोग के प्रति सहनशील इस किस्म का विकास राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय के श्री करण नरेन्द्र कृषि महाविद्यालय, जोबनेर द्वारा किया गया है| यह किस्म राजस्थान के लिए उपयुक्त है तथा लगभग 140 से 150 दिनों में पक जाती है| जिसकी पैदावार लगभग 6 से 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर है|
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जी सी- 1- यह किस्म उखठा रोग के प्रति सहनशील एवं गुजरात के लिए उपयुक्त है| इस किस्म के पौधे सीधे, गुलाबी फूलों वाले व भूरे मोटे बीज वाले होते हैं| यह किस्म 105 से 110 दिनों में पककर तैयार हो जाती है| इसकी औसत पैदावार 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर पायी गयी है|
जी सी- 2- गुजरात के लिए उपयुक्त इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र जगदान (गुजरात) द्वारा किया गया है| यह किस्म लगभग 100 दिनों मे पक कर तैयार हो जाती है जो लगभग 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की पैदावार देती है|
जी सी- 3- उखठा रोग सहने की क्षमता वाली इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदान (गुजरात) द्वारा किया गया है| लगभग 7 क्विंटल प्रति हैक्टेयर की उपज देने वाली यह किस्म 100 दिन में पक कर तैयार हो जाती है|
जी सी- 4- उखठा रोग के लिए प्रतिरोधी इस किस्म का विकास मसाला अनुसंधान केन्द्र, जगुदान (गुजरात) ने गुजरात जीरा- 3 (जी सी- 3) की पंक्ति चयन द्वारा किया गया है| यह किस्म 115 से 120 दिनों में पककर तैयार हो जाती है| जिसकी पैदावार लगभग 12 क्विंटल प्रति हैक्टेयर दर्ज की गयी है|
बीज दर एवं बीजोपचार
जीरे की बुवाई के लिए खेत में 12 से 15 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर की दर से डालना चाहिए| बीजोपचार करने से फसल को भूमि जनित व बीज जनित व्याधियों से बचाया जा सकता है| जीरे को बीज जनित रोगों से बचाने के लिए बीजों को थाइरम या सेरेसान या बाविस्टिन द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए|
जैविक खेती के लिए बीज को ट्राईकोडर्मा द्वारा 4 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से उपचारित कर लेना चाहिए, ताकि गुणवत्तायुक्त अधिक उपज मिल सके| बीजोपचार सर्वप्रथम कवकनाशी उसके बाद कीटनाशी एवं अन्त में जीवाणु युक्त दवाई या जीवाणु खाद से करना चाहिए|
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बुवाई का समय
जीरे की बुवाई का उपयुक्त समय अक्तूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के मध्य तक है| फसल की बुवाई देरी से करने पर फसल की वृद्धि ठीक से नहीं हो पाती है एवं बीमारियों व कीटों का प्रकोप बढ़ जाता है, जिससे उपज पर प्रतिकूल असर पड़ता है|
बुवाई की विधि
छिटकवां विधि- जीरा उगाने वाले काफी कृषक छिटकवां विधि द्वारा बुवाई करते आये हैं, परन्तु यह बुवाई का वैज्ञानिक तरीका नहीं है| बुवाई की इस विधि में पहले उचित आकार की क्यारियाँ बनाई जाती है| तत्पश्चात् बीजों को समान रूप से बिखेरकर लोहे की दंताली द्वारा हल्की मिट्टी चढ़ा देनी चाहिए| इस विधि द्वारा बुवाई हेतु बीज दर अपेक्षाकृत अधिक लगता है एवं अन्तः कृषि क्रियाएँ (निराई-गुडाई) भी सुविधापूर्वक एवं आसानी से नहीं हो पाती हैं|
कतार विधि- जीरे के बीजों की बुवाई 25 सेंटीमीटर की दूरी पर बनाई गई कतारों में करनी चाहिए एवं पौधे से पौधे की दूरी 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए| उपर्युक्त दोनों विधियों में यह ध्यान रखते है, कि बीज के ऊपर 2.0 सेंटीमीटर से ज्यादा मिट्टी न चढ़ने पाये अन्यथा बीज जमाव प्रभावित होगा|
कतार विधि द्वारा की गयी बुवाई में अपेक्षाकृत अधिक मेहनत की जरुरत होती है| परन्तु इस विधि से बुवाई करने से अंतरासस्य क्रियाएँ जैसे निराई-गुड़ाई व दवाओं के छिड़काव आदि में सुविधा होती है| इस विधि द्वारा बुवाई करने से फसल की कटाई में भी आसानी होती है|
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खाद एवं उर्वरक
जीरे की अच्छी व गुणवत्तायुक्त फसल लेने के लिए भूमि में पोषक तत्त्वों की उचित मात्रा होनी चाहिए| उर्वरकों की मात्रा मृदा परीक्षण के परिणाम के आधार पर तय कि जानी चाहिए| खेत में अच्छी प्रकार सड़ी हुई गोबर की खाद को बुवाई के तीन सप्ताह पहले 10 से 15 टन प्रति हैक्टेयर की दर से समान रूप से मिला देना चाहिए| इसके अतिरिक्त एक औसत उर्वर भूमि में 30 किलोग्राम नत्रजन, 20 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 20 किलोग्राम पोटाश का प्रयोग करना चाहिए|
आधी नत्रजन की मात्रा एवं सम्पूर्ण फॉस्फोरस तथा पोटाश की मात्रा अन्तिम जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए| जबकि शेष आधी नत्रजन को दो भागों में बाँटकर बुवाई के 30 व 60 दिन बाद टॉपड्रेसिंग के रूप में सिंचाई के साथ देना चाहिए| जीरे की अच्छी व गुणवत्तायुक्त उपज पाने के लिये जैविक खादों के प्रयोग को बढ़ावा देना चाहिए|
सिंचाई प्रबंधन
मृदा में अगर नमी की कमी महसूस हो तो बुवाई के तुरन्त बाद एक हल्की सिंचाई करनी चाहिए| सिंचाई करते समय यह ध्यान रखना चाहिए, कि क्यारियों में पानी का बहाव तेज न हो अन्यथा बीज बहकर क्यारियों के किनारों पर इकट्ठे हो सकते है| पहली सिंचाई के 8 से 10 दिन बाद दूसरी हल्की सिंचाई की जानी चाहिए| यदि जमाव ठीक न हो तथा ऊपर सख्त पपड़ी बन रही हो तो एक और हल्की सिंचाई कर देना लाभदायक रहता है|
मृदा की संरचना तथा मौसम के आधार पर 15 से 25 दिन के अंतराल पर 3 से 5 सिंचाई करनी चाहिए| जब 50 प्रतिशत दाने पूरी तरह भर जाये तो सिंचाई बन्द कर देनी चाहिए अन्यथा बीमारियों के प्रकोप की आशंका रहती है| जल के बचत हेतु फॅव्वारा एवं बूंद-बूंद सिंचाई विधि का प्रयोग करना चाहिए|
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निराई-गुडाई
जीरे में फसल एवं खरपतवार प्रतियोगिता की सहनशील क्रांतिक अवस्था फसल बुवाई के 55 दिन तक होती है| इस अवधि तक फसल को खरपतवारों से मुक्त रखना चाहिए| जीरे की फसल में बुवाई के 30 एवं 60 दिन बाद कम से कम दो निराई-गुड़ाई करनी चाहिए जिससें खरपतवार नियंत्रण तथा भूमि में उचित वायु संचार बना रह सके|
प्रारंभ में फसल की वृद्धि बहुत धीमी होती है| अतः फसल को इस अवस्था में खरपतवार से मुक्त रखना चाहिए अन्यथा खरपतवार शीघ्र बढ़कर फसल को दबा देते है और परिणामस्वरूप फसल कमजोर हो जाती है| अतिरिक्त पौधों को कतारों से प्रथम निराई के समय ही निकाल देना चाहिए| ताकि पौधों की वृद्धि एवं विकास भलीभांति हो सके|
खरपतवार पर नियन्त्रण के लिए फ्लूक्लोरेलीन (बेसालिन 40 ई सी) 1.0 किलोग्राम क्रियाशील तत्त्व प्रति हैक्टेयर की दर से बुवाई से पहले भूमि में मिला देना चाहिए| इसके अलावा बुवाई के बाद तथा जमाव से पहले पेन्डीमेथालीन खरपतवारनाशी का एक किलोग्राम क्रियाशील तत्व का 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से भूमि पर छिड़काव किया जा सकता है|
राष्ट्रीय बीजीय मसाला अनुसंधान केन्द्र पर अध्ययन में पाया गया कि ऑक्साडाइरोजिल 75 ग्राम प्रति 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर बुवाई के बाद छिड़काव करने पर चौड़ी पत्ती वाले खरपतवारों का सफलतापूर्वक नियंत्रण किया जा सकता है|
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रोग एवं रोकथाम
उखठा रोग (विल्ट)
फ्यूजेरियम ऑक्सीस्पोरम नामक कवक द्वारा फैलने वाला यह मृदा जनित रोग पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है| परन्तु प्रायः जब फसल एक महीने की हो जाती है, तो इस रोग का प्रकोप होता है| पौधे की उम्र के साथ रोग का प्रकोप बढता जाता है| रोग पौधे की जड़ में लगता है| इसके प्रारम्भिक लक्षण के रूप में पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और धीरे-धीरे पौधा मुरझा कर सूखने लगता है|
संक्रमित पौधे को जमीन से निकालने पर आसानी से निकल जाता है एवं जड़ों मे गहरे भूरे रंग के धब्बे दिखाई पड़ते हैं| जिन खेतों में फसल चक्र नहीं अपनाया जाता है, वहाँ रोग का प्रभाव अधिक होता है| अगर रोग का संक्रमण पुष्प आने के समय होता है, तो उसमें बीज नहीं बनते है|
रोकथाम
इस रोग के नियंत्रण के लिए जीरे के खेत को खरीफ में बाजरा एवं गवार तथा रबी में सरसों तथा गेहूँ द्वारा परिवर्तित करना चाहिए तथा कम से कम तीन वर्ष का शस्यावर्तन अपनाना चाहिए| जैविक फफूंदनाशी ट्राईकोडर्मा द्वारा बीजोपचार करना लाभप्रद रहता है| रासायनिक रुप से बीज को बाविस्टीन या कैप्टान द्वारा 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर बुवाई करना चाहिए| शुद्ध स्वस्थ व रोगरहित या उखठा रोगरोधक किस्म जैसे- जी सी- 4 के बीजों की बुवाई करनी चाहिए|
जीरे में सूत्रकमि का प्रकोप देखा गया है, जिसके अन्तर्गत सत्रकमि इन फसलों की जडों पर घाव कर देता है| सूत्रकृमि के प्रकोप से जीरे में फ्युजेरियम विल्ट का प्रकोप बढ़ जाता है| इसके नियन्त्रण के लिए बुवाई से पूर्व अरण्डी की खली को भूमि में मिलाना चाहिए तथा गर्मी के मौसम में मृदा सौर्यकरण एवं उचित फसल चक्र अपनाना चाहिए|
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झुलसा रोग (ब्लाइट)
झुलसा रोग से एक या दो दिन में ही पूरी फसल नष्ट हो जाती है| फसल में पुष्पन शुरू होने के बाद अगर आकाश में बादल छाये हो तथा नमी बढ जाये तो इस रोग की संभावना काफी बढ़ जाती है| इस रोग में पौधों की पत्तियों व तनों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं तथा पौधे के सिरे झुके से नजर आने लगते हैं| रोग के उग्र अवस्था में रोगी पत्तियाँ झुलसी हुई दिखाई देती है|
रोग ग्रसित पौधों में या तो बीज नहीं बनते है और बनते है तो भी छोटे एवं सिकडे हुए होते है| इस रोग के अधिक प्रकोप की स्थिति में पूरे खेत की फसल काली पड़ जाती है तथा ज्यादातर पौधे धीरे-धीरे सूखकर मर जाते हैं| अनुकूल वातावरण होने पर यह रोग इतनी तेजी से फैलता है कि, फसल को बचाना लगभग मुश्किल हो जाता है|
रोकथाम
मौसम के बदलाव आते ही बीमारी के आने की संभावना होने पर दवा का छिड़काव करके फसल को बचाया जा सकता है| फफूंदनाशी डाइथेन एम- 45 या जाइनेब अथवा फाइटोलान या थायोफिनेट मिथाइल की 0.2 प्रतिशत मात्रा को 400 से 500 लीटर पानी में घोलकर एक हैक्टेयर फसल पर छिड़काव करना चाहिए तथा जरुरत पड़ने पर छिड़काव को 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर दोहराया जा सकता है|
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छाछया रोग (पाउडरी मिल्डयू)
फसल में अतिशीघ्र फैलने वाले इस हवा जनित रोग में बीमारी की प्रारम्भिक अवस्था में पौधों की पत्तियों व टहनियों पर सफेद चूर्ण दृष्टिगोचर होता है| जो उग्र अवस्था में पूरे पौधे को चूर्ण से ढक देता है| इस रोग के लक्षण एक से दो पौधों में दिखते ही नियंत्रण करना चाहिए अन्यथा फसल को बचाना असम्भव हो जाता है| रोगग्रस्त पौधे पर या तो बीज बनता ही नहीं, और अगर बनता है, तो छोटे आकार का तथा बहुत ही कम मात्रा में रोग के देर से आने पर उपज पर तो ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ता है, लेकिन दानों का रंग व चमक खराब हो जाती है|
रोकथाम
एक किलोग्राम घुलनशील गंधक या 500 मिलीलीटर कैराथेन या 700 ग्राम कैलेक्सिन का 500 से 600 लीटर पानी में घोल बनाकर एक हैक्टेयर क्षेत्र में छिडकाव करने से इस बीमारी की रोकथाम की जा सकती है| आवश्यकता पड़ने पर 10 से 15 दिनों बाद छिड़काव को दोहराया जाना चाहिए|
कीट एवं रोकथाम
माहू (एफिड)
माहू कीट पुष्पन के समय फसल पर आक्रमण करता है एवं फसल के कोमल भागों से रस चूस लेता है| उग्र अवस्था में पौधे पीले होकर सूख जाते हैं व फसल की बढ़तवार प्रभावित होती है| इन कीटों की ज्यादा उपस्थिति उत्पादन व गुणवत्ता को प्रभावित करती है|
रोकथाम
इसके प्रभावी नियन्त्रण के लिए 0.03 प्रतिशत डॉइमेथोएट या फॉस्फामिडान का 500 से 600 लीटर घोल बनाकर एक हैक्टेयर क्षेत्र में छिड़काव करना चाहिए| आवश्यकता पड़ने पर 10 से 15 दिनों बाद छिड़काव को दोहराया जा सकता है|
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जीरे का पाले से बचाव
जीरे की फसल पाले से आसानी से प्रभावित होने वाली फसलों में से एक है| इस फसल को पाले से बचाने के लिए पाला पड़ने की संभावना होने पर फसल की सिंचाई करनी चाहिए| अस्थाई प्लास्टिक की दीवारों जिनकी ऊंचाई 2.0 मीटर तक हो सकती है का उपयोग पाला नियन्त्रण में काफी सार्थक रहता है|
फसल कटाई
जीरे की किस्म, स्थानीय मौसम, सिंचाई व्यवस्था आदि के अनुसार फसल 90 से 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है| अच्छी गुणवत्ता वाला जीरा पैदा करने के लिए फसल की कटाई समय पर करनी चाहिए| कटी फसल को अच्छी तरह सूखा कर बीजीय मसाला थ्रेशर द्वारा बीज को अलग कर लेना चाहिए| बीजों की औसाई करके अवांछनीय पदार्थ अलग कर लेना चाहिए| तत्पश्चात् बीजों को उपयुक्त बोरियों या थैलों में भर देते हैं| बोरियों में भरते समय बीज में नमी की मात्रा अधिक नहीं होनी चाहिए अन्यथा बीजों के खराब होने का खतरा रहता है|
पैदावार
उपरोक्त कृषि की उन्नत या वैज्ञानिक विधियाँ अपनाकर खेती करने पर औसतन 8 से 15 क्विंटल प्रति हैक्टेयर तक जीरे की उपज प्राप्त की जा सकती है|
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