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रजनीगंधा की उन्नत खेती, जानिए भूमि, किस्में, देखभाल एवं पैदावार

Author by Bhupender Leave a Comment

रजनीगंधा की उन्नत खेती, जानिए भूमि, किस्में, देखभाल एवं पैदावार

रजनीगंधा एक बहुपयोगी पौधा है| जिसका पुष्प तथा सुगन्ध उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान है| इस अलंकारिक कन्दीय पौधे के पुष्प सुन्दरता, लालित्य तथा विशिष्ट गन्ध के लिए कर्तित पुष्प के रूप में उपयोगिता के कारण पुष्प उद्योग में प्रचलित तथा प्रसिद्ध हैं| रजनीगंधा के फूल ऐसे समय उपलब्ध होते हैं| जब बाजार में अन्य सजावटी पुष्पों का अभाव होता है| इसके कटे फूल उत्तम गुणवत्ता, लम्बे समय तक ताजा बने रहने और परिवहन में सुविधा के कारण पुष्पसज्जा, पुष्पविन्यास तथा उपहार के रूप में पसन्द किए जाते हैं|

जबकि खुले फूलों को गजरा, वेणी तथा अन्य सजावट के लिए प्रयोग किया जाता है| रजनीगंधा की कुछ प्रजाति सुन्दर पत्तियों के लिए गमलों में सजावटी पौधे के रूप में उगाई जाती हैं| सुगंधित तथा सुवासित पुष्पों की सुगन्ध उद्योग में भारी मांग है| जिनसे प्राप्त प्राकृतिक सुगंध तेल का उपयोग उच्च कोटि के सौन्दर्य प्रसाधनों तथा इत्रों में किया जाता है|

रजनीगंधा के कन्दों तथा पुष्पों के औषधीय उपयोग भी हैं| हमारे देश में इसकी व्यावसायिक खेती पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, तमिलनाडु, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में की जाती है| यदि किसान बन्धु इसकी खेती वैज्ञानिक तकनीक से करें, तो रजनीगंधा की फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते है| इस लेख में रजनीगंधा की उन्नत खेती कैसे करें का विस्तृत उल्लेख किया गया है|

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उपयुक्त जलवायु

रजनीगंधा को लगभग सभी प्रकार की जलवायु में सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है| परन्तु 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक तथा 20 डिग्री सेल्सियस कम तापमान फूलों की गुणवता पर दुष्प्रभाव डालता है| उत्तर भारत में इसकी खेती लगभग वर्ष भर की जा सकती है|

भूमि का चयन

रजनीगंधा की खेती समुचित जलनिकास वाली जीवांशयुक्त, रोगमुक्त दोमट-बलुई या दोमट भूमि, जिसका पी एच मान 6.5 से 7.5 हो, में सफलतापूर्वक की जा सकती है|  उत्तर भारत के एक राष्ट्रीय वन अनुसंधान संस्थान में तो रजनीगंधा को 9.0 पी एच मान तक वाली भूमि में उगाया गया है| इसकी खेती के लिए चुने गए खेत छायादार स्थानों से दूर होने चाहिए, जहाँ सूर्य का प्रकाश प्रचुर मात्रा में, दीर्घकाल तक मिलता हो|

खेत की तैयारी

चुनाव किये गए खेत की मिट्टी पलटने वाले हल से 6 से 8 इंच गहरी जुताई फरवरी माह में करते है| इसके बाद दो से तीन जुताई हैरो या कल्टीवेटर अथवा देशी हल से करके मिट्टी को भुरभुरा बना लें| खेत से घास-फूस को चुनकर निकाल दें| आखिरी जुताई से पहले खाद और उर्वरक की संस्तुत मात्रा खेत में समान मात्रा में बुरका दें|

यदि खेत में दीमक, निमेटोड, अन्य कीटों आदि के प्रकोप का भय हो तो फ्यूराडान या थिमेट का प्रयोग करें| तत्पश्चात पाटा लगाकर खेत को समतल कर लें| तैयार खेत में 10 मीटर लम्बी तथा 2 मीटर चौड़ी या सुविधानुसार उपयुक्त आकार की क्यारियाँ तैयार कर लें|

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उन्नत किस्में

रजनीगंधा की किस्मों का वर्गीकरण स्पाइक की लम्बाई, फूलों की पंखुड़ियों की कतार और उनकी संख्या के आधार पर किया जाता है| किस्मों को मुख्यतः चार वर्गों में विभाजित किया गया है, जैसे-

एक पुष्प वाली (सिंगल टाइप)- इसके फूल में पुखुड़ियाँ एक कतार में होती हैं और पुष्प अपेक्षाकृत लम्बे होते हैं| फूल सफेद और तीव्र सुगन्धयुक्त होते हैं| खिले फूलों को पुष्प विन्यास में प्रयोग किया जाता है| इस किस्म में सुगंध तेल की मात्रा अधिक होने के कारण कंक्रीट बनाने में प्रयोग किया जाता है| इस वर्ग में कलकत्ता सिंगल, रजतरेखा और मैक्सिकन सिंगल किस्में आती हैं|

दोहरे पुष्प वाली (डबल टाइप)- इसमें पंखुड़ियों की तीन से अधिक कतारें होती हैं| इसके फूल हल्की लालिमा लिए हुए क्रीम से सफेद रंग के होते हैं| सुगन्ध कम होने के कारण इत्र बनाने में उपयोगी नहीं है| पंखुड़ियाँ पूरी तरह से नहीं खुलती हैं| लम्बे समय तक टिकने के कारण इसके फूलों को प्रमुखतः कट फ्लावर के रूप में प्रयोग किया जाता है| इस वर्ग में कलकत्ता डबल, पर्ल डबल और अलंकारिक पत्तियों वाली किस्म स्वर्ण रेखा प्रमुख हैं|

अर्ध दोहरे पुष्प वाली (मध्यम प्रकार)- इस वर्ग में सफेद रंग के फूलों वाली पंखुड़ियों की 2 से 3 कतार होती हैं| इस वर्ग की किस्में कट फ्लावर के रूप में तथा इत्र बनाने में प्रयोग की जाती है| वैभव, श्रृंगार तथा सुवासिनी किस्में सिंगल और डबल टाइप के संकरण से तैयार की गई हैं|

अलंकारिक पत्तियों वाली किस्में- अलंकारिक पत्तियों (दो रंगी) वाली किस्म रजतरेखा तथा स्वर्णरेख इस वर्ग की हैं| रजतरेखा में पत्तियों के मध्य में चमकीली सफेद धारी होती हैं तथा फूल सिंगल टाइप के होते हैं| स्वर्णरेखा में पत्तियों के किनारे हरे एवं सुनहरे रंग के होते हैं और फूल डबल टाइप के होते हैं|

बीजदर व रोपाई का समय

एक हेक्टेयर में रोपण हेतु लगभग एक लाख कन्दों की आवश्यकता होती है| जो वजन में लगभग 15 से 20 क्विंटल होते हैं| उत्तर भारत में रजनीगन्धा की रोपाई का उपयुक्त समय मार्च का दूसरा पखवाड़ा है, तथापि विशेष परिस्थितियों में इसे अप्रैल तक लगाया जा सकता है|

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कन्दों का चुनाव

रजनीगंधा का प्रवर्धन बीज, कन्द व ऊतक संवर्धन द्वारा किया जा सकता है| लेकिन कंदों द्वारा प्रवर्धन सबसे सरल, प्रचलित एवं सस्ती विधि है| कंदों से तैयार किए गए पौधे बीज से तैयार पौधों की तुलना में तेजी से बढ़ते हैं तथा अधिक उत्पादन देते हैं| रोपाई के लिए उचित कन्दों का चुनाव अत्यन्त महत्वपूर्ण है| क्योंकि इससे अंकुरण एवं वृद्धि का समय, स्पाइक की लम्बाई, फूलों का आकार और संख्या प्रभावित होते हैं|

रोपण के लिए 2 से 3 सेंटीमीटर व्यास तथा लगभग 20 से 35 ग्राम वजन वाले स्पिन्डिल (तकली के आकार के) कंद उपयुक्त होते हैं| बड़े आकार के कन्दों में अंकुरण देरी से होता है| लेकिन बढ़वार अच्छी होती है एवं फूल जल्दी आते हैं| ताजे खुदे कंदों को तुरन्त न रोपकर करीब एक माह भंडारण के उपरान्त रोपित करें|

कंद उपचार

उचित आकार के कन्दों को अच्छी तरह साफ करके बाविस्टिन के 0.025 प्रतिशत (25 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी) घोल में 15 मिनट तक डुबाकर, छाया में सुखाना चाहिए| बाविस्टिन की इस मात्रा को वर्मीवाश अथवा गोमूत्र के 10 प्रतिशत घोल में तैयार करके प्रयोग करने से अधिक लाभकारी परिणाम मिलते हैं| कन्दों को जैविक कवकनाशी ट्राइकोडर्मा के कल्चर से भी 10 ग्राम प्रति किलोग्राम कंद की दर से उपचारित किया जा सकता है|

कंदों की रोपाई

कन्दों की रोपाई कन्द के आकार, भूमि एवं रोपी जा रही किस्म पर निर्भर करती हैं| सिंगल टाइप की किस्मों को डबल की तुलना में अपेक्षाकृत कम दूरी पर लगाया जाता है| सामान्यतः कन्दों को 25 सेंटीमीटर की दूरी पर, 40 सेंटीमीटर दूर पंक्तियों में रोपा जाता है| इसके लिए 40 सेंटीमीटर दूरी पर 7 से 8 सेंटीमीटर गहरी लाइन खोदकर, कंदों को रखकर मिट्टी से अच्छी तरह ढक दें| दूसरी डिबलिंग विधि में उपरोक्त दूरी पर खुरपी से खोदकर, कंदों को लगाकर, मिट्टी से ढक दिया जाता है| सामान्यतः एक स्थान पर एक ही कंद लगाया जाता है| लेकिन छोटे कंद होने पर दो कंदों को एक साथ लगाया जाता है|

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खाद एवं उर्वरक

रजनीगंधा की फसल को पोषक तत्वों की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है| कई रासायनिक खादों के संतुलित प्रयोग से इसका अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| कार्बनिक और रासायनिक खादों के संतुलित प्रयोग से इसका अच्छा उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है| खेत की अंतिम जुताई से पहले लगभग 30 टन प्रति हेक्टेयर अच्छी तरह सड़ी गोबर की खाद या 15 टन गोबर की खाद एवं 3 टन नीम की खली डालनी चाहिए| नीम की खली पोषण के साथ मिटटी जनित रोगों और कीट रोकथाम में भी प्रभावी होती है|

नाइट्रोजन, फास्फोरस एक पोटाश रजनीगंधा की बढ़वार तथा उत्पादन को प्रभावित करते हैं| पोषक तत्वों की कमी से कभी-कभी फूल एकदम नहीं आते हैं| नाइट्रोजन की अधिक मात्रा प्रयोग करने से फूलों की गुणवत्ता तथा टिकने की क्षमता में कमी आती है| अतः मिटटी परीक्षण के आधार पर, उर्वरकों की संस्तुत मात्रा का प्रयोग किया जाना चाहिए|

सामान्य मिटटी में 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस तथा 40 किलोग्राम पोटाश की प्रति हेक्टेयर आवश्यकता होती है| नाइट्रोजन की आधी मात्रा और फास्फोरस तथा पोटाश की पूरी मात्रा बुआई से पहले डालनी चाहिए| उर्वरकों की उपरोक्त मात्रा लगभग 100 किलोग्राम, यूरिया 300 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट तथा 75 किलोग्राम म्यूरेट आफ पोटाश से प्राप्त हो जायेगी|

यूरिया और सिंगल सुपर फास्फेट के स्थान पर 130 किलोग्राम डी ए पी और 50 किलोग्राम यूरिया का प्रयोग भी कर सकते हैं| इसके अतिरिक्त 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट डालने से लाभकारी परिणाम मिलते हैं| नाइट्रोजन की शेष मात्रा के लिए 100 किलोग्राम यूरिया दो बार में खड़ी फसल में रोपण के 40 से 50 तथा 70 से 75 दिनों बाद डालनी चाहिए| वानस्पतिक वृद्धि हो जाने के बाद पोषक तत्वों के पर्णीय छिड़काव के भी लाभकारी परिणाम देखे गए हैं|

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सिंचाई प्रबंधन

अच्छे अंकुरण के लिए कंदों को समुचित नमी की आवश्यकता होती है, अतः रोपण के तुरन्त बाद हल्की सिंचाई कर देनी चाहिए| अंकुरण की अवस्था में अत्यधिक नमी अथवा जल भराव हानिकारक होता है| अंकुरण के बाद गरमी के महीनों में 5 से 7 दिन के अंतराल पर सिंचाई की आवश्यकता होती है| ध्यान रखें कि स्पाइक आने (पुष्पन) के समय खेत में नमी की अधिकता से फूल देरी से और कम आते हैं तथा उनमें सुगन्ध भी कम होती है|

बरसात के दिनों में सामान्यतः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है और जलनिकास पर ध्यान देना होता है| अक्टूबर से नवम्बर में 10 से 15 दिनों के अन्तराल पर सिंचाई की जाती है| दिसम्बर से जनवरी में कंद सुप्तावस्था में होते हैं| अतः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है| यदि पेड़ी (रेटून) की फसल ली जा रही हो तो फरवरी माह से सिंचाई प्रारम्भ कर देनी होती है|

निराई-गुड़ाई

रोपाई के बाद की गई सिंचाई से होने वाले कंदों के अंकुरण के साथ-साथ अनेकों खरपतवार तेजी से उगते हैं तथा पोषक तत्वों, नमी, सूर्य के प्रकाश तथा स्थान हेतु मुख्य फसल से प्रतियोगिता करते हैं| अतः रोपण के लगभग तीन सप्ताह बाद खुरपी से गहरी निराई-गुड़ाई की जानी चाहिए| इससे खर-पतवारों के नियंत्रण के साथ वायुसंचार भी अच्छा होता है एवं पौधे तेजी से वृद्धि करते हैं| पहली निराई-गुड़ाई के बाद गर्मियों के महीनों में एक माह के अंतराल पर, तथा जुलाई तथा सितम्बर में एक-एक निराई-गुड़ाई की आवश्यकता होती है|

खरपतवारों को निकालकर, कतारों के बीच के स्थान में बराबर फैला देने से ये पलावर (मल्च) का कार्य करते हैं और नमी को संरक्षित रखने के साथ मिट्टी में जीवांश की मात्रा भी बढ़ाते हैं| रासायनिक खरपतवारनाशी के प्रयोग की अपेक्षा खुरपी से की गई निराई-गुड़ाई के परिणाम अधिक लाभकारी पाए गए हैं|

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फसल सुरक्षा

रजनीगंधा एक सहनशील तथा कठोर फसल है तथा इसे विशेष देखभाल की आवश्यकता नहीं होती है| लेकिन खरपतवारों से फसल की सुरक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण है| जबकि कीटों और रोगों का विशेष प्रकोप नहीं देखा गया है| यह फसल जानवरों द्वारा चरी जाती है, अतः फूल आने के समय पालतू और नीलगाय जैसे जंगली जानवरों से फसल की सुरक्षा अत्यन्त महत्वपूर्ण है| रजनीगन्धा के खेत में चूहे बिल बनाकर फसल का नुकसान करते हैं| यह समस्या रैटून फसल में विकराल रूप धारण कर लेती है| इनके नियंत्रण के लिए जिंक फास्फाइड जैसे व्यावसायिक उत्पाद प्रयोग किए जा सकते हैं|

कीट एवं रोकथाम- खेत में घास रहने पर फसल पर टिड्डों का प्रकोप होता है| जो फूलों का नुकसान करते हैं| टिड्डों और माहू के नियंत्रण के लिए मैलाथियान अथवा रोगोर के 0.1 प्रतिशत (एक से दो मिलीलीटर दवा प्रति लीटर पानी) घोल का छिड़काव कर सकते हैं|

थ्रिप्स और लाल मकड़ी कीट बहुत छोटे आकार के होते हैं तथा पत्तियों की निचली सतह पर पाए जाते हैं| ये पत्तियों, तने और फूलों का रस चूसते हैं| थ्रिप्स के नियंत्रण के लिए खेत की तैयारी के समय थिमेट का प्रयोग लाभकारी होता है| खड़ी फसल में इनके नियंत्रण के लिए 0.1 प्रतिशत नुवाक्रान का प्रयोग किया जा सकता है|

लाल मकड़ी कीट के नियंत्रण हेतु 0.2 प्रतिशत मेटासिस्टोक्स अथवा घुलनशील सल्फर का प्रयोग करते हैं| खेत की तैयारी के समय यदि कीटों हेतु मिटटी का उपचार कर दिया गया हो तो थ्रिप्स, बीविल, दीमक, मकड़ी आदि का प्रकोप नहीं होता|

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पौधों में सूत्रकृमि (निमेटोड) का प्रकोप होने से पौधे पीले पड़ जाते हैं, पत्तियाँ सूखने लगती हैं और पौधे की बढ़वार रुक जाती है| खेत की तैयारी के समय फ्यूराडान या थिमेट अथवा नीम की खली का प्रयोग करके फसल निमेटोड से बचाया जा सकता है| खड़ी फसल में इनका प्रकोप होने पर 5 प्रतिशत नीम की खली का घोल प्रभावित पौधों की जड़ों के आस-पास डालना चाहिए|

रोग एवं रोकथाम- फसल की रोगों से रक्षा हेतु खेत तथा कंदों का चुनाव करते समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती है| चयनित खेत कवकजनित रोगों से मुक्त होना चाहिए और कंद रोगमुक्त फसल से लिये जाने चाहिए| रोपण से पूर्ण कंदोपचार (वाविस्टिन का 0.025 प्रतिशत घोल) कर देने से रोगों का प्रकोप कम होता है|

रोगों में तना विगलन प्रमुख है, जो नीचे पत्तियों पर धब्बे बनने से प्रारम्भ होता है| ये धब्बे विगलन (सड़न) प्रारम्भ करते हैं तथा पत्तियाँ टूट कर गिर जाती हैं| इससे फसल को बचाने के लिए ब्रेसिकाल को 30 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से भूमि में मिलाना चाहिए| पत्तियों पर होने वाले धब्बा एवं झुलसा रोग के दिखाई देते ही इसकी रोकथाम के लिए मैंकोजेब की 0.2 प्रतिशत मात्रा का छिड़काव करना चाहिए|

फूलों की कटाई व पैकिंग

रजनीगंधा की स्पाइक (पुष्प) को उस समय काटा जाना चाहिए, जब फूल पूर्णरूप से विकसित हो गये हों, लेकिन खुले न हों| स्पाइक को काटने के लिए सूर्योदय एवं सूर्यास्त का समय उचित होता है| स्पाइक को जमीन से लगभग 2 से 3 इंच ऊपर से तेज धार वाली छुरी से काटना चाहिए| काटी हुई स्पाइक को तुरन्त पानी में ड्बोकर रखना चाहिए|

स्पाइकों को उनकी लम्बाई तथा फूलों की संख्या के अनुसार श्रेणीकृत किया जाता है| श्रेणीकरण (ग्रेडिंग) के पश्चात् स्पाइकों को दर्जन अथवा सैकड़े के हिसाब से बंडल बनाकर अखबार के कागज से बांध दिया जाता है| स्पाइकों के तने का कटे सिरे वाला भाग पानी से नम कर देना चाहिए| बंडलों को गत्ते के डिब्बों में पैक करके स्थानीय बाजार या सुदूर क्षेत्रों में भेज सकते हैं|

स्पाइकों के दीर्घ भण्डारण के लिए यदि उन्हें बेन्जीमिडाजोल या चीनी के घोल में डुबाया जाए तो ये जल्दी मुरझाते नहीं हैं| यदि फूल एकत्रित करने हों तो पूरी तरह से खिल चुके फूलों को अलग-अलग तोड़ लेना चाहिए| खुले फूलों को बांस की टोकरियों में निर्धारित वजन में तौल कर पैक किया जाता है तथा ऊपर से हल्के सूती कपड़े से ढक दिया जाता है| फूलों की बिक्री वजन के अनुसार होती है|

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पैदावार

रजनीगंधा के फूलों और स्पाइकों की उपज लगायी गयी किस्म, पौधों की संख्या, जलवायु तथा सस्य प्रबंधन पर निर्भर करती है| सिंगल किस्म से एक हेक्टेयर से लगभग 20 से 25 टन फूल तीन वर्ष की अवधि में प्राप्त होते हैं| दुसरे वर्ष में फूलों की उपज सर्वाधिक होती है, जो तीसरे वर्ष कम हो जाती है| एक हेक्टेयर क्षेत्र से लगभग 2.5 से 3.5 लाख स्पाइक प्राप्त होते हैं|

फूलों स्पाइकों के अतिरिक्त फसल की खुदाई करने पर लगभग 20 से 23 टन कन्द प्रति हेक्टेयर प्राप्त होते हैं| पौधों में फल आना समाप्त हो जाने पर उनकी वृद्धि रुक जाती है और कन्द परिपक्व होते हैं| परिपक्व कन्दों को खोद कर निकाल लिया जाता है तथा साफ करके आंशिक छाया में सुखाकर भण्डारित कर लिया जाता है|

पेड़ी की फसल (रैटूनिंग)

रजनीगंधा की एक बार रोपी गयी फसल से तीन वर्षों तक आर्थिक उपज प्राप्त कर सकते हैं, जिसे पेडी की फसल अथवा रैटूनिंग कहा जाता है| उत्तर भारत के मैदानी भागों में शीतकाल में रजनीगंधा के पौधे में कोई वृद्धि नहीं होती, पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और कभी-कभी पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती हैं| इस सुसुप्तावस्था की समाप्ति माह फरवरी में तापमान बढ़ने के साथ होती है|

नये क्षेत्रों में रोपाई के लिए कन्दों की खुदाई सुसुप्तावश में ही की जानी चाहिए| पेड़ी की फसल में दूसरे वर्ष स्पाइक की संख्या तथा फूलों का वजन बढ़ जाता है| जो तीसरे वर्ष में कम हो जाता है| अतः तीन वर्ष फसल लेने के बाद फसल को पुनः नये सिरे से लगाना चाहिए| कट फ्लावर के लिए हर वर्ष फसल लगाना ठीक रहता है, क्योंकि पेड़ी की फसल में स्पाइकों की संख्या तो बढ़ जाती है, लेकिन उनकी गुणवत्ता निम्न श्रेणी की होती है|

पेड़ के फसल में जनवरी माह में मुख्य फसल को दी गयी उर्वरक की आधी मात्रा डाल कर हल्की सिंचाई कर देने के उनकी सुसुप्तावस्था समाप्त हो जाती है| उर्वरक की शेष आधी मात्रा अप्रैल में टॉप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए| शेष सस्य क्रियाएं मुख्य फसल की ही भांति की जाती हैं| पेड़ी की फसल में मुख्य फसल की अपेक्षा जल्दी फूल आने प्रारम्भ हो जाते हैं|

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